यह 2000 के अंतिम महीनों की बात होगी जब पटना स्टेशन के निकट सीटीओ के मीडिया सेन्टर में पहली बार राजस्थान पत्रिका के पटना से संवाददाता और मित्र प्रियरंजन भारती ने मनोचिकित्सक डॉ.विनय कुमार से यह कहकर परिचय कराया था कि ये भी अच्छी गजलें लिखते हैं। उस समय मैं पटना से अमर उजाला के लिए संवाद भेजा करता था और पत्रकारों की पूरी विरादरी वहीं सीटीओ में जुट जाया करती थी। पहली बार विनय कुमार ने क्या सुनाया यह मुझे याद नहीं पर कुछ ही महीनों बाद वे दुबारे भारती के साथ आए तो उन्होंने अपनी दिल्ली से संबंधित गजल सुनायी , जो मुझे बहुत जंची और मुझे लगा कि अरे, ये तो अच्छे रचनाकार लग रहे हैं, अबतक थे कहां...।
बाद में पता चला कि वे लंबे अरसे से स्वांतःसुखाय लेखन करते रहे हैं। उनके जाने के बाद भी दिल्ली की पंक्तियां मुझे हांट करती रहीं - ...दो आने में दिल की फोटो कापी मिलती रहती है,कुछ भी करना प्यार न करना कारोबारी दिल्ली में। फिर मैं एक बार उनके बोरिंग रोड स्थित क्लिनिक पर गया । पुर्जा देख उन्होंने भीतर बुला लिया और सलीके से बातें की, मरीजों को देखना बंद कर। इसी तरह समय बीतने लगा।
अब अमर उजाला छोड मैं हिन्दी पाक्षिक न्यूज ब्रेक में काम करने लगा था और उसका रास्ता उनके क्लिनिक से होकर जाता था, तो आते जाते मैं उनसे मिलने लगा। अब हर मुलाकात के समय उनके पास नयी पुरानी गजलें भी रहतीं, कुछ कविताएं भी, जिन पर हम बैठकर बातें करते। कंपाउंडर को यह सब नागवार गुजरता था, शुरू में उसे लगता कि पता नहीं इ कौन कवि जीवा आके डाक्टर साहब का समय बरबाद करता है। पर मरीजों को लगातार देखने से जो उब पैदा होती होगी वह इस बीच की घंटे भर की बैठकी से कटती थी, इसलिए मैंने हमेशा इस बातचीत से उन्हें उत्साहित पाया और यह क्रम नियमित सा होता गया। फिर मैं वहां जाने पर तब तक रहने लगा जबतक कि वे अपने तमाम मरीज निपटा ना लेेते। मुझे भी तरह तरह के मनोरोगियों को देखने का मौका मिलता, उनके हाव-भाव-विचार देख जान मैं समाज की भीतरी बनावट को देखने का नया नजरिया पाता जा रहा था और मेरी रूचि उनमें बढती जा रही थी।
एक तरह से मनोवेद की भूमिका यहीं से बनने लगी थी। इस संगत से एक ओर जहां विनय कुमार की कविताई गति पाने लगी थी वहीं मेरी मनाविज्ञान से संबंधित जिज्ञासाएं बल पा रही थीं।इस सब के महीनों बाद पहली बार जब विनय कुमार अपनी मोहतरमा मंजू जी के साथ एक रेश्तरां में चाय पर मिले तो विनय कुमार की अनुपस्थिति में उन्हेांने पूछते सा कहा - आप ही हैं मुकुल जी। अरे जब से आपसे मिले हैं ये ,बस मुकुुल जी ,मुकुलजी किए रहते हैं, हां एक बात हुयी है कि पहले ये पागलों को देख कर आने पर घर भर पर पागलों की तरह झल्लाने लगते थे , वह कम हुआ है। इस पर हमलोग साथ साथ हंसने लगे। मुझे राहत मिली,कि मैं कोई अपराध नहीं कर रहा।फिर हमारा संवाद बढता गया। क्लिनिक की बैठकी बढती गयी। कभी कभी मंजू जी हमारी संगत में जाया होते समय पर तंज भी कसतीं। पर कुल मिलाकर चीजें सकारात्मक दिशा में बढती जा रही थीं।
हां, विनय कुमार की काम में खो जाने की आदत है अब मरीज देखना हो या कविता पर बातें करना, एक काम करते वे दूसरे को बिसरा देते थे। फिर कविता पर बातें करना भी कोई काम है। अब उनकी गजलें-कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में आने लगीं थीं और लेखकीय उत्साह बेलगाम होता जा रहा था।
इसी बीच अचानक पैदा बेरोजगारी के बीच हैदराबाद से गोपेश्वर सिंह का बुलावा आया कि आप एकाध दिन के भीतर हैदराबाद आकर स्वतंत्र वार्ता ज्वायन कर लें, कि मदन कश्यप भी वहीं हैं। आगे पता चला कि हिन्दी के चर्चित कवि वेणु गोपाल भी उसी अखबार में हैं। इतनी बातें काफी थीं मेरे पटना बदर होने के लिए, क्योंकि घर में बेरोजगारी का दबाव काफी था और मैं मुहल्ले में होमियोपैथी का क्लिनिक खोलने का विचार करने लगा था और इस पर विनय कुमार से विचार-विमर्श भी चलने लगा था।
और मैं हैदराबाद चला गया। पर विनय कुमार के साथ जो साल भर की बैठकी हमारी लग चुकी थी, वह गुल खिलाने लगी थी। अब वे फोन पर अक्सर अपनी कविताएं सुनाते। उनकी हर नयी कविता का सामान्यतः मैं पहला श्रोता रहता और यह क्रम चलते अब दस साल होने जा रहे हैं। उस समय मैं बस में रहूं या कडी धूप में इससे अंतर नहीं पडता, कविता सुनने की रौ में धूप कभी मुझे धूप नहीं लगी। इधर मनोवेद के काम के बाद जिस तरह विनय कुमार के सर पर काम का बोझ बढा है अब इस कविता के सुनने में कुछ बाधाएं आ रही हैं, क्योंकि जरूरी काम अब दूसरे ज्यादा रहते हैं सिर पर, फिर भी वे जब तब समय निकाल कर कविताएं सुना ही डालते हैं और औसतन वे हिन्दी के किसी भी कवि के मुकाबले अच्छी कविताएं लिखते हैं इसलिए यह हमेशा मुझे अच्छा लगता रहा है और अब तो उनकी कविताओं को पसंद करनेवालों में ज्ञानेन्द्रपति से लेकर आलोकधन्वा तक हैं।
इसी दौरान कविता की उनकी लौ बढी और उनके मन में कविता की एक पत्रिका निकालने का विचार आया। अब इस पर लगातार फोन पर उनसे बातचीत होती रहती। अंततः उन्होंने समकालीन कविता का पहला अंक निकाल ही दिया और उनके सलाहकार मंडल में मैं भी एक था। उनके एक अंक निकालते निकालते मैं पटना वापिस आ गया था, वहां का काम छोडकर। अब विनय कुमार से बातचीत के क्रम में समकालीन कविता के अलावे एक और नियमित पत्रिका की योजना बनने लगी क्यों कि समकालीन कविता एक अनियमित पत्रिका थी जो चार छह महीने पर पर्याप्त उपयुक्त सामग्री इकटठा होने पर छपती थी। तब हमलोंगों ने बच्चों के लिए एक पत्रिका झरना नाम से निकालने की सोची। उसका विज्ञापन भी समकालीन कविता में दिया गया।
इसी बीच डॉ.विनय कुमार की ही शंका के आधार पर जब मैंने बडे बेटे की गले की छह माह से चली आ रही गांठ का चेकअप कराया तो कैंसर की आशंका सच साबित हुयी और फिर बोनमैरो टैस्ट में उसकी पुस्टि के बाद सारा चक्र ही बदल गया और मुझे इलाज के लिए पटना से दिल्ली आना पडा। यहां करीब तीन साल तक इलाज चला, जिसमें डॉ.विनय कुमार की महती भूमिका रही। हमारी पत्रिका की योजना इस बीच रूकी रही। दिल्ली में मैं किसी तरह फ्रीलांसिग कर काम चला रहा था। इस बीच दो साल तक संप्रति पथ नाम से एक द्वैमासिक पत्रिका भी निकाला, साहित्य की। इस दौरान डॉ.विनय चाहते थे कि साहित्य की ही एक पत्रिका ठीक से निकाली जाए, मासिक। पर अंततः हमलोेगों का विचार इस ओर मुड़ा कि क्येां न मनोरोगों पर एक पत्रिका हिन्दी में निकाली जाए। डॉ.विनय उस समय अंग्रेजी में सायकेट्री का एक जर्नल निकाल रहे थे। और आगे मनोरोगियों के लिए एक हास्पीटल का सपना भी उनका रहा है। तो संभवतः इन चीजों ने ही हमारा रूख इस ओर किया कि अंग्रेजी में तो दुनिया भर में काम होता ही है, हिन्दी के बडे पाठक वर्ग के लिए मनोरोग पर कुछ काम नहीं है। फिर हमलोगों ने मनोवेद नाम तय किया, कुछ बैठकें कर। पर आगे आरएनआई से हमें मनोवेद डाइजेस्ट नाम मिला और अब पत्रिका इसी नाम से आ रही है।
इस देश में किसी भी बौद्धिक काम में सारा दारोमदार अधिकांशतः अंग्रेजी पर रहता है, सो हिन्दी में मनोवेद निकालने में बहुत सी कठिनाइयां थीं। पर विनय कुमार की मनोचिकित्सक जमात में अच्छी साख हाने से यह काम आसान होता गया। हर अंक में मनोचिकित्सक की कलम से शीर्षक से चार पांच आलेख इस पत्रिका में रहते हैं जो एक तरह से आधार का काम करते हैं और अब इसके लिए देश भर से चिकित्सकों की एक टीम मनोवेद के लिए लिखने में रूचि लेने लगी है। इसके अलावे हर अंक में हमलोग विश्व स्तर के, भारत के या विदेश के किसी मनोचिकित्सक से एक लंबी बातचीत देते हैं जो लगातार पाठकोें के आकर्षण का केंद्र रहता है।
इस मुल्क में मनोरोगियों को अक्सर पागलपन का कलंक झेलना पड़ता है तो मनोवेद का मूल उददेश्य इस कलंक से लड़ना भी है। इसके लिए हमलोग हर अंक में निष्कलंक के तहत अपने अपने क्षेत्र में दुनिया की ऐसी नामी हस्तियों पर फोकस करते हैं जो एक समय मनोरोग के शिकार रहे पर उससे जूझ कर, निकलकर उनलोगों ने अपने क्षेत्र में, दुनिया में, अपने काम और नाम का सिक्का जमाया है।
चूंकि सारा साहित्यिक लेखन मन की ही अभिव्यक्ति होता है इसलिए हर अंक में हम इस दृष्टि से चुनाव कर सामग्री भी देते रहते हैं, चाहे वह कविता, कहानी हो या अन्य विधा हो। हर अंक में हम एक स्थापित लेखक,रचनाकर से बातचीत भी देते हैं । इस सब के पीछे हमारा नजरिया यह रहा कि साहित्य केा समाज का दर्पण कहा जाता है और हमारे पाठक समाज के इस आइने में अपना चेहरा देख सकें। इसके अलावे किताब के बहाने नाम के कालम में हम मन की जटिलताओं को अभिव्यक्त करने वाली आत्मकथात्मक कृतियों पर विमर्श को सामने लाते हैं। मनोविज्ञान के क्षेत्र की महती हस्तियों फ्रायड ,युंग और एडलर आदि के इससे संबंधित विचारों को भी हम देने की कोशिश करते हैं ताकि पाठक इसकी दार्शनिक दिशाओं में भी अपनी पहुंच बना सकें। एक कालम सवाल जवाब का भी होता है जिसमें हम पाठकों के मानसिक संकटों का जवाब देश के मनोचिकित्सकों से प्राप्त कर उसे सार्वजनिक करते हैं ताकि आम जन उन्हें जानकर उनके प्रति एक नजरिया बना सकें।
अपने सीमित संसाधनों में मनेावेद त्रैमासिक के रूप मेें सामन्यतः नियमित निकलता रहा है, पिछले ढाई सालों से। लोगों से इसपर हमें हमेशा उत्साहवर्धक टिप्पणियां मिलीं हैं। पहल के संपादक ज्ञानरंजन जब 2008 के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में मिले थे तो उन्होंने मनोवेद को हर घर के लिए एक जरूरी पत्रिका बताते हुए इसके प्रचार प्रसार को बढाने की बात की थी। साल में मनोचिकित्सकों की जो सालाना कांफ्रेस होती है, देश के किसी हिस्से में, उसमें पिछले तीन सालों से जाते हुए हमने यह अनुभव किया है कि चिकित्सकों में इसको लेकर एक उत्साहजनक रवैया है। वे उत्साह से इसकी सालाना गा्रहकी लेते हैं। हां कुछ ऐसे मनोचिकित्सक भी टकराते हैं कभी-कभार, जो यह कह कंधे उचकाते चल देते हैं कि पत्रिका अंग्रेजी में क्यों नहीं है...तो भैया अंग्रेजी में तो सबकुछ है ही हिन्दुस्तान में, हिन्दी में इस तरह की यह पहली पत्रिका है।
बाद में पता चला कि वे लंबे अरसे से स्वांतःसुखाय लेखन करते रहे हैं। उनके जाने के बाद भी दिल्ली की पंक्तियां मुझे हांट करती रहीं - ...दो आने में दिल की फोटो कापी मिलती रहती है,कुछ भी करना प्यार न करना कारोबारी दिल्ली में। फिर मैं एक बार उनके बोरिंग रोड स्थित क्लिनिक पर गया । पुर्जा देख उन्होंने भीतर बुला लिया और सलीके से बातें की, मरीजों को देखना बंद कर। इसी तरह समय बीतने लगा।
अब अमर उजाला छोड मैं हिन्दी पाक्षिक न्यूज ब्रेक में काम करने लगा था और उसका रास्ता उनके क्लिनिक से होकर जाता था, तो आते जाते मैं उनसे मिलने लगा। अब हर मुलाकात के समय उनके पास नयी पुरानी गजलें भी रहतीं, कुछ कविताएं भी, जिन पर हम बैठकर बातें करते। कंपाउंडर को यह सब नागवार गुजरता था, शुरू में उसे लगता कि पता नहीं इ कौन कवि जीवा आके डाक्टर साहब का समय बरबाद करता है। पर मरीजों को लगातार देखने से जो उब पैदा होती होगी वह इस बीच की घंटे भर की बैठकी से कटती थी, इसलिए मैंने हमेशा इस बातचीत से उन्हें उत्साहित पाया और यह क्रम नियमित सा होता गया। फिर मैं वहां जाने पर तब तक रहने लगा जबतक कि वे अपने तमाम मरीज निपटा ना लेेते। मुझे भी तरह तरह के मनोरोगियों को देखने का मौका मिलता, उनके हाव-भाव-विचार देख जान मैं समाज की भीतरी बनावट को देखने का नया नजरिया पाता जा रहा था और मेरी रूचि उनमें बढती जा रही थी।
एक तरह से मनोवेद की भूमिका यहीं से बनने लगी थी। इस संगत से एक ओर जहां विनय कुमार की कविताई गति पाने लगी थी वहीं मेरी मनाविज्ञान से संबंधित जिज्ञासाएं बल पा रही थीं।इस सब के महीनों बाद पहली बार जब विनय कुमार अपनी मोहतरमा मंजू जी के साथ एक रेश्तरां में चाय पर मिले तो विनय कुमार की अनुपस्थिति में उन्हेांने पूछते सा कहा - आप ही हैं मुकुल जी। अरे जब से आपसे मिले हैं ये ,बस मुकुुल जी ,मुकुलजी किए रहते हैं, हां एक बात हुयी है कि पहले ये पागलों को देख कर आने पर घर भर पर पागलों की तरह झल्लाने लगते थे , वह कम हुआ है। इस पर हमलोग साथ साथ हंसने लगे। मुझे राहत मिली,कि मैं कोई अपराध नहीं कर रहा।फिर हमारा संवाद बढता गया। क्लिनिक की बैठकी बढती गयी। कभी कभी मंजू जी हमारी संगत में जाया होते समय पर तंज भी कसतीं। पर कुल मिलाकर चीजें सकारात्मक दिशा में बढती जा रही थीं।
हां, विनय कुमार की काम में खो जाने की आदत है अब मरीज देखना हो या कविता पर बातें करना, एक काम करते वे दूसरे को बिसरा देते थे। फिर कविता पर बातें करना भी कोई काम है। अब उनकी गजलें-कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में आने लगीं थीं और लेखकीय उत्साह बेलगाम होता जा रहा था।
इसी बीच अचानक पैदा बेरोजगारी के बीच हैदराबाद से गोपेश्वर सिंह का बुलावा आया कि आप एकाध दिन के भीतर हैदराबाद आकर स्वतंत्र वार्ता ज्वायन कर लें, कि मदन कश्यप भी वहीं हैं। आगे पता चला कि हिन्दी के चर्चित कवि वेणु गोपाल भी उसी अखबार में हैं। इतनी बातें काफी थीं मेरे पटना बदर होने के लिए, क्योंकि घर में बेरोजगारी का दबाव काफी था और मैं मुहल्ले में होमियोपैथी का क्लिनिक खोलने का विचार करने लगा था और इस पर विनय कुमार से विचार-विमर्श भी चलने लगा था।
और मैं हैदराबाद चला गया। पर विनय कुमार के साथ जो साल भर की बैठकी हमारी लग चुकी थी, वह गुल खिलाने लगी थी। अब वे फोन पर अक्सर अपनी कविताएं सुनाते। उनकी हर नयी कविता का सामान्यतः मैं पहला श्रोता रहता और यह क्रम चलते अब दस साल होने जा रहे हैं। उस समय मैं बस में रहूं या कडी धूप में इससे अंतर नहीं पडता, कविता सुनने की रौ में धूप कभी मुझे धूप नहीं लगी। इधर मनोवेद के काम के बाद जिस तरह विनय कुमार के सर पर काम का बोझ बढा है अब इस कविता के सुनने में कुछ बाधाएं आ रही हैं, क्योंकि जरूरी काम अब दूसरे ज्यादा रहते हैं सिर पर, फिर भी वे जब तब समय निकाल कर कविताएं सुना ही डालते हैं और औसतन वे हिन्दी के किसी भी कवि के मुकाबले अच्छी कविताएं लिखते हैं इसलिए यह हमेशा मुझे अच्छा लगता रहा है और अब तो उनकी कविताओं को पसंद करनेवालों में ज्ञानेन्द्रपति से लेकर आलोकधन्वा तक हैं।
इसी दौरान कविता की उनकी लौ बढी और उनके मन में कविता की एक पत्रिका निकालने का विचार आया। अब इस पर लगातार फोन पर उनसे बातचीत होती रहती। अंततः उन्होंने समकालीन कविता का पहला अंक निकाल ही दिया और उनके सलाहकार मंडल में मैं भी एक था। उनके एक अंक निकालते निकालते मैं पटना वापिस आ गया था, वहां का काम छोडकर। अब विनय कुमार से बातचीत के क्रम में समकालीन कविता के अलावे एक और नियमित पत्रिका की योजना बनने लगी क्यों कि समकालीन कविता एक अनियमित पत्रिका थी जो चार छह महीने पर पर्याप्त उपयुक्त सामग्री इकटठा होने पर छपती थी। तब हमलोंगों ने बच्चों के लिए एक पत्रिका झरना नाम से निकालने की सोची। उसका विज्ञापन भी समकालीन कविता में दिया गया।
इसी बीच डॉ.विनय कुमार की ही शंका के आधार पर जब मैंने बडे बेटे की गले की छह माह से चली आ रही गांठ का चेकअप कराया तो कैंसर की आशंका सच साबित हुयी और फिर बोनमैरो टैस्ट में उसकी पुस्टि के बाद सारा चक्र ही बदल गया और मुझे इलाज के लिए पटना से दिल्ली आना पडा। यहां करीब तीन साल तक इलाज चला, जिसमें डॉ.विनय कुमार की महती भूमिका रही। हमारी पत्रिका की योजना इस बीच रूकी रही। दिल्ली में मैं किसी तरह फ्रीलांसिग कर काम चला रहा था। इस बीच दो साल तक संप्रति पथ नाम से एक द्वैमासिक पत्रिका भी निकाला, साहित्य की। इस दौरान डॉ.विनय चाहते थे कि साहित्य की ही एक पत्रिका ठीक से निकाली जाए, मासिक। पर अंततः हमलोेगों का विचार इस ओर मुड़ा कि क्येां न मनोरोगों पर एक पत्रिका हिन्दी में निकाली जाए। डॉ.विनय उस समय अंग्रेजी में सायकेट्री का एक जर्नल निकाल रहे थे। और आगे मनोरोगियों के लिए एक हास्पीटल का सपना भी उनका रहा है। तो संभवतः इन चीजों ने ही हमारा रूख इस ओर किया कि अंग्रेजी में तो दुनिया भर में काम होता ही है, हिन्दी के बडे पाठक वर्ग के लिए मनोरोग पर कुछ काम नहीं है। फिर हमलोगों ने मनोवेद नाम तय किया, कुछ बैठकें कर। पर आगे आरएनआई से हमें मनोवेद डाइजेस्ट नाम मिला और अब पत्रिका इसी नाम से आ रही है।
इस देश में किसी भी बौद्धिक काम में सारा दारोमदार अधिकांशतः अंग्रेजी पर रहता है, सो हिन्दी में मनोवेद निकालने में बहुत सी कठिनाइयां थीं। पर विनय कुमार की मनोचिकित्सक जमात में अच्छी साख हाने से यह काम आसान होता गया। हर अंक में मनोचिकित्सक की कलम से शीर्षक से चार पांच आलेख इस पत्रिका में रहते हैं जो एक तरह से आधार का काम करते हैं और अब इसके लिए देश भर से चिकित्सकों की एक टीम मनोवेद के लिए लिखने में रूचि लेने लगी है। इसके अलावे हर अंक में हमलोग विश्व स्तर के, भारत के या विदेश के किसी मनोचिकित्सक से एक लंबी बातचीत देते हैं जो लगातार पाठकोें के आकर्षण का केंद्र रहता है।
इस मुल्क में मनोरोगियों को अक्सर पागलपन का कलंक झेलना पड़ता है तो मनोवेद का मूल उददेश्य इस कलंक से लड़ना भी है। इसके लिए हमलोग हर अंक में निष्कलंक के तहत अपने अपने क्षेत्र में दुनिया की ऐसी नामी हस्तियों पर फोकस करते हैं जो एक समय मनोरोग के शिकार रहे पर उससे जूझ कर, निकलकर उनलोगों ने अपने क्षेत्र में, दुनिया में, अपने काम और नाम का सिक्का जमाया है।
चूंकि सारा साहित्यिक लेखन मन की ही अभिव्यक्ति होता है इसलिए हर अंक में हम इस दृष्टि से चुनाव कर सामग्री भी देते रहते हैं, चाहे वह कविता, कहानी हो या अन्य विधा हो। हर अंक में हम एक स्थापित लेखक,रचनाकर से बातचीत भी देते हैं । इस सब के पीछे हमारा नजरिया यह रहा कि साहित्य केा समाज का दर्पण कहा जाता है और हमारे पाठक समाज के इस आइने में अपना चेहरा देख सकें। इसके अलावे किताब के बहाने नाम के कालम में हम मन की जटिलताओं को अभिव्यक्त करने वाली आत्मकथात्मक कृतियों पर विमर्श को सामने लाते हैं। मनोविज्ञान के क्षेत्र की महती हस्तियों फ्रायड ,युंग और एडलर आदि के इससे संबंधित विचारों को भी हम देने की कोशिश करते हैं ताकि पाठक इसकी दार्शनिक दिशाओं में भी अपनी पहुंच बना सकें। एक कालम सवाल जवाब का भी होता है जिसमें हम पाठकों के मानसिक संकटों का जवाब देश के मनोचिकित्सकों से प्राप्त कर उसे सार्वजनिक करते हैं ताकि आम जन उन्हें जानकर उनके प्रति एक नजरिया बना सकें।
अपने सीमित संसाधनों में मनेावेद त्रैमासिक के रूप मेें सामन्यतः नियमित निकलता रहा है, पिछले ढाई सालों से। लोगों से इसपर हमें हमेशा उत्साहवर्धक टिप्पणियां मिलीं हैं। पहल के संपादक ज्ञानरंजन जब 2008 के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में मिले थे तो उन्होंने मनोवेद को हर घर के लिए एक जरूरी पत्रिका बताते हुए इसके प्रचार प्रसार को बढाने की बात की थी। साल में मनोचिकित्सकों की जो सालाना कांफ्रेस होती है, देश के किसी हिस्से में, उसमें पिछले तीन सालों से जाते हुए हमने यह अनुभव किया है कि चिकित्सकों में इसको लेकर एक उत्साहजनक रवैया है। वे उत्साह से इसकी सालाना गा्रहकी लेते हैं। हां कुछ ऐसे मनोचिकित्सक भी टकराते हैं कभी-कभार, जो यह कह कंधे उचकाते चल देते हैं कि पत्रिका अंग्रेजी में क्यों नहीं है...तो भैया अंग्रेजी में तो सबकुछ है ही हिन्दुस्तान में, हिन्दी में इस तरह की यह पहली पत्रिका है।