वेद इतिहास हैं या आख्यान हैं इस पर शास्त्रों में अच्छी बहस है। 14वीं सदी के सायणाचार्य के पूर्व के दर्जनों वेदाचार्य जिनमें ईसापूर्व 7वीं सदी के प्रथम आचार्य यास्क (जिनका ग्रंथ उपलब्ध है इस अर्थ में प्रथम), आचार्य स्कंद स्वामी, भटट भास्कर, उद्गीथ, दुगाचार्य आदि वेद में इतिहास नहीं मानते। आधुनिक आचार्य दयानंद भी ऐसा ही मानते हैं।
इन विद्वानों का तर्क यह है कि अगर वेद में इतिहास माना जाएगा तो फिर उसे अपैरूषेय कैसे माना जाएगा। क्योकि इतिहास तो व्यक्ति से संबद्ध होता है, ईश्वर से नहीं।
अपौरूषेय का तर्क भी रोचक है। वेदों आदि का संकलन वेद व्यास ने किया है पर वे उसके लेखक तो हैं नहीं। पर सैकड़ों ऋषि-ऋषिकाएं हैं जिनसे वे ऋचाएं संबद्ध हैं। तो उनकी व्याख्या यह है कि उन ऋषियों ने इन ऋचाओं को प्रत्यक्ष किया। मतलब उन्हें अनुभव हुआ उन अलौकिक तथ्यों का।
देखा जाए तो यह केवल कहने की प्रणाली का झगड़ा है।
जो भी लेखक-कवि हैं वे भी अपने कथ्य का अनुभव ही करते हैं फिर उसे प्रत्यक्ष करते हैं यानि लिखते हैं। पहले लिखने की जगह सुन कर याद रखने की परंपरा थी तो वह श्रुति कहलायी।
यास्क से लेकर दयानंद तक सब मानते हैं कि वेद में जो विभिन्न नाम हैं ऋषियों व देवों के वे व्यक्ति नहीं बल्कि प्रतीक हैं आत्मा,प्राण व प्रकृति के विभिन्न तत्वों के।
यजुर्वेद की एक ऋचा के अनुसार वशिष्ठ प्राण हैं,भारद्वाज मन, जमदग्नि चक्षु हैं तो विश्वामित्र श्रोत्र। यम-यमी भी सूर्य-रात्रि हैं व उर्वशी भी विद्युत है। वेदों की ही पंक्ति है - एकं सद विप्रा बहुधा बदन्ती...।
इसी तरह इंद्र,आदित्य,अग्नि आदि भी वैश्वानर यानि आत्मा के रूप हैं। इसी तरह गौ किरण है।
दयानंद आरोप लगाते हैं कि पुराणों व भागवत आदि ने इन कथाओं को और बिगाड दिया।
पर ऋग्वेदकालीन उपन्यास लोपामुद्रा के लेखक कन्हैयालाल माणेक लाल मुंशी वेद को इतिहास मानते हैं। लोपामुद्रा की भूमिका में वे लिखते हैं कि ऋग्वेद में इतिहास के उषाकाल की हलचल है। इस इतिहास की तुलना में पौराणिक कथाएं नीरस हैं। भूमिका के अंत में वे लिखते हैं कि लोपामुद्रा में भारतीय इतिहास की सर्वप्रथम सच्ची घटनाएं अंकित हुई हैं।
दुर्गाचार्य इसकी अच्छी व्याख्या करते कहते हैं कि जैसे सवार-सवार के भेद से घोड़ा अलग अलग चाल चलता है उसी तरह साधु-साधु के भेद से भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं और यह सहज है, मतलब मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना।
यह ठीक भी है क्योंकि जब वेद की 1131 शाखाएं हैं, और सबका वेद अलग था, जिनमें अधिकांश नष्ट हो गये तो फिर कोई एक अर्थ कौन व कैसे निश्चित करेगा ? (दुर्गाचार्य के अनुसार निरूक्त 14 तरह के हैं और 21 तरह के ऋग्वेद, 101 यजुर्वेद, 1000 तरह के सामवेद और 9 तरह के अथर्ववेद हैं। मतलब वेद कुल 1131 तरह के हुए। )
निरुक्त के भाष्यकार दुर्ग भी वेद में नित्य इतिहास मानते हैं। उनके अनुसार जब किसी आध्यात्मिक, आधिदैविक या आधिभौतिक विषय पर प्रकाश डालने के लिए उसकी कथा कही जाती है तो वह इतिहास कहा जाता है। मंत्र का अर्थ ग्रहण करने वाले के लिए वह इतिहास उपदेशात्मक होता है।
वेदों के पहले विद्वान यास्क ने जो शब्द-अर्थ जुटा दिया उसी पर सारा काम बढा वेदों का। आगे सायणाचार्य ने इसे ज्यादा भौतिकवादी ढंग से आगे बढाया पर उनका आधार भी यास्क आदि ही हैं। यास्क के यहां जिन दर्जनों अन्य निरूक्तों की चर्चा है वे अब उपलब्ध नहीं। तो वेदों के शब्दों के किसी एक अर्थ पर आप बहुत जोर नहीं दे सकते क्योंकि उनके प्रमाण अब उपलब्ध नहीं, ना अब उनका मिलना संभव है।
देखा जाए तो यास्क और सायणाचार्य के मतों का अंतर उनके समय का अंतर भी है। दोनों के बीच दो हजार सालों का अंतर है। और वेदों में आध्यात्मिक विषयों पर जितनी बातें हैं उनसे कई गुणा ज्यादा भौतिकवादी तथ्य हैं।
इंद्र, अग्नि आदि से जुड़े अध्ािकांश तथ्य भौतिकवादी हैं जिनमें देवों से वस्तु की मांग की जाती है। एक ऋचा में स्पष्ट है कि इंद्र मेरा तुमसे लेन देन का रिश्ता है। ऐसे में सायण ने अगर इस सबको तरजीह दी तो इसमें गलत क्या है? अब जहां साफ-साफ सोम-दूध-मधु खाने खिलाने की बात है उसे आप ब्रहम से कैसे जोड़ सकते हैं।
पर नासदीय सूक्त जैसे कई सूक्त हैं वेदों में जिनमें ब्रहम चिंतन है और इस विश्व की रचना कैसे हुई इस पर विचार है।
तो इन दो ध्रुवों के मध्य की विचार परंपरा ही वेदों को लेकर किसी सम्यक निष्कर्ष तक हमें पहुंचा सकती है।
इन विद्वानों का तर्क यह है कि अगर वेद में इतिहास माना जाएगा तो फिर उसे अपैरूषेय कैसे माना जाएगा। क्योकि इतिहास तो व्यक्ति से संबद्ध होता है, ईश्वर से नहीं।
अपौरूषेय का तर्क भी रोचक है। वेदों आदि का संकलन वेद व्यास ने किया है पर वे उसके लेखक तो हैं नहीं। पर सैकड़ों ऋषि-ऋषिकाएं हैं जिनसे वे ऋचाएं संबद्ध हैं। तो उनकी व्याख्या यह है कि उन ऋषियों ने इन ऋचाओं को प्रत्यक्ष किया। मतलब उन्हें अनुभव हुआ उन अलौकिक तथ्यों का।
देखा जाए तो यह केवल कहने की प्रणाली का झगड़ा है।
जो भी लेखक-कवि हैं वे भी अपने कथ्य का अनुभव ही करते हैं फिर उसे प्रत्यक्ष करते हैं यानि लिखते हैं। पहले लिखने की जगह सुन कर याद रखने की परंपरा थी तो वह श्रुति कहलायी।
यास्क से लेकर दयानंद तक सब मानते हैं कि वेद में जो विभिन्न नाम हैं ऋषियों व देवों के वे व्यक्ति नहीं बल्कि प्रतीक हैं आत्मा,प्राण व प्रकृति के विभिन्न तत्वों के।
यजुर्वेद की एक ऋचा के अनुसार वशिष्ठ प्राण हैं,भारद्वाज मन, जमदग्नि चक्षु हैं तो विश्वामित्र श्रोत्र। यम-यमी भी सूर्य-रात्रि हैं व उर्वशी भी विद्युत है। वेदों की ही पंक्ति है - एकं सद विप्रा बहुधा बदन्ती...।
इसी तरह इंद्र,आदित्य,अग्नि आदि भी वैश्वानर यानि आत्मा के रूप हैं। इसी तरह गौ किरण है।
दयानंद आरोप लगाते हैं कि पुराणों व भागवत आदि ने इन कथाओं को और बिगाड दिया।
पर ऋग्वेदकालीन उपन्यास लोपामुद्रा के लेखक कन्हैयालाल माणेक लाल मुंशी वेद को इतिहास मानते हैं। लोपामुद्रा की भूमिका में वे लिखते हैं कि ऋग्वेद में इतिहास के उषाकाल की हलचल है। इस इतिहास की तुलना में पौराणिक कथाएं नीरस हैं। भूमिका के अंत में वे लिखते हैं कि लोपामुद्रा में भारतीय इतिहास की सर्वप्रथम सच्ची घटनाएं अंकित हुई हैं।
दुर्गाचार्य इसकी अच्छी व्याख्या करते कहते हैं कि जैसे सवार-सवार के भेद से घोड़ा अलग अलग चाल चलता है उसी तरह साधु-साधु के भेद से भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं और यह सहज है, मतलब मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना।
यह ठीक भी है क्योंकि जब वेद की 1131 शाखाएं हैं, और सबका वेद अलग था, जिनमें अधिकांश नष्ट हो गये तो फिर कोई एक अर्थ कौन व कैसे निश्चित करेगा ? (दुर्गाचार्य के अनुसार निरूक्त 14 तरह के हैं और 21 तरह के ऋग्वेद, 101 यजुर्वेद, 1000 तरह के सामवेद और 9 तरह के अथर्ववेद हैं। मतलब वेद कुल 1131 तरह के हुए। )
निरुक्त के भाष्यकार दुर्ग भी वेद में नित्य इतिहास मानते हैं। उनके अनुसार जब किसी आध्यात्मिक, आधिदैविक या आधिभौतिक विषय पर प्रकाश डालने के लिए उसकी कथा कही जाती है तो वह इतिहास कहा जाता है। मंत्र का अर्थ ग्रहण करने वाले के लिए वह इतिहास उपदेशात्मक होता है।
वेदों के पहले विद्वान यास्क ने जो शब्द-अर्थ जुटा दिया उसी पर सारा काम बढा वेदों का। आगे सायणाचार्य ने इसे ज्यादा भौतिकवादी ढंग से आगे बढाया पर उनका आधार भी यास्क आदि ही हैं। यास्क के यहां जिन दर्जनों अन्य निरूक्तों की चर्चा है वे अब उपलब्ध नहीं। तो वेदों के शब्दों के किसी एक अर्थ पर आप बहुत जोर नहीं दे सकते क्योंकि उनके प्रमाण अब उपलब्ध नहीं, ना अब उनका मिलना संभव है।
देखा जाए तो यास्क और सायणाचार्य के मतों का अंतर उनके समय का अंतर भी है। दोनों के बीच दो हजार सालों का अंतर है। और वेदों में आध्यात्मिक विषयों पर जितनी बातें हैं उनसे कई गुणा ज्यादा भौतिकवादी तथ्य हैं।
इंद्र, अग्नि आदि से जुड़े अध्ािकांश तथ्य भौतिकवादी हैं जिनमें देवों से वस्तु की मांग की जाती है। एक ऋचा में स्पष्ट है कि इंद्र मेरा तुमसे लेन देन का रिश्ता है। ऐसे में सायण ने अगर इस सबको तरजीह दी तो इसमें गलत क्या है? अब जहां साफ-साफ सोम-दूध-मधु खाने खिलाने की बात है उसे आप ब्रहम से कैसे जोड़ सकते हैं।
पर नासदीय सूक्त जैसे कई सूक्त हैं वेदों में जिनमें ब्रहम चिंतन है और इस विश्व की रचना कैसे हुई इस पर विचार है।
तो इन दो ध्रुवों के मध्य की विचार परंपरा ही वेदों को लेकर किसी सम्यक निष्कर्ष तक हमें पहुंचा सकती है।
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