अपने बारे में जब सोचता हूं ...

अपने बारे में सोचता हूं कि क्‍या हूं तो देखता हूं कि मैं किसानी चेतना का आदमी हूं, झट से जमीन धर लेना चाहता हूं।
दिल्‍ली में भी वही फूल पत्‍ते पत्‍थर मिटटी देखता ढूंढता रहता हूं।
चलने से थक जाता हूं तो दौडना चाहता हूं भाग लेना चाहता हूं इस बेमकसद चलते रहने से।
मैं क्‍या होना चाहता हूं इस बारे में भी जब सोचता हूं तो पाता हूं कि जो हूं वह तो कभी होना चाहा नहीं।
बचपन में कोर्स में एक लेख पढा था किसी का खेती बाडी पर तो अपनी कापी में एक लेख लिखा था कि मैं पढा लिखा किसान होना चाहता हूं। पर कभी पिता को वह लेख या चिटठी पढा नहीं स‍का वह कापी ताखे पर पडी रह गयी। कडे प्रशासक रहे पिता के सामने जाने की हिम्‍मत ही नहीं हुयी तब। यूं जब पढने लिखने का दौर आया तो चाहा कि कुछ समाजसुधारक बनूं। मैंने हमेशा साहित्‍यकारों से समाजसेवियों को बडा पाया।
गांधी नेहरू सुभाष आदि का भी महत्‍व उनके इसी रूप को लेकर है। इन्‍हें लेखको से महत्‍वपूर्ण माना सदा। इन्‍होंने किताबें भी लिखी जो लेखकों से कमतर नहीं साबित हुयीं।
यूं जब कवि कहाने लगा तो पिता चाहते थे कि चिकित्‍सक होउं। पर नंबर इंटर साइंस में चारसौबीस आए। दो साल केवल गांव घूमा सिनेमा देखा सोन के बालू में लोटा बगीचा घूमा। पिता ने बाद में पूछा तो टका सा जवाब दे दिया कि जिंदगी भर पढाते रहे रामचरितमानस,दिनकर का चक्रवाल,गीता के स्थितप्रज्ञ के लक्षण तो डाक्‍टर कहां से बन जाउंबाद में होमियोपैथी पढी अपनी रूची से जी भर तो लगा पिता की दबी ईच्‍छा को पूरी कर रहा होउं इस तरह।
कवि होने या कहाने की कथा भी अजीब है। मेरे त‍ीन साथी थे सहरसा में राजेश आशिक,अच्‍युतानंद कर्ण और शैली। जब मैं बीए पोलिटिकल सायंस का छात्र था तो यही संगी थे। ये तीनों कविताएं करते थे अपने जाने में। मैं देखता कि इनकी क्षणिकाएं व लघुकथाएं उस समय के दैनिक प्रदीप आर्यावर्त में छपती हैं और ये सीना फुलाए घूमते हैं तो मैंने भी अखबार देखना शुरू किया। फिर जो वे लिखते थे उसे देख सोचा यही है कविता करना तो मैंने भी कुछ वैसा ही लिखकर भेज दिया अखबारों में। और यह मजेदार रहा कि मेरी पहली ही लघुकथा प्रदीप में छपी और उसके पारिश्रमिक के रूप में पंद्रह रूपये का मनिआर्डर भी आया पटना से।
तो आज से पच्‍चीस साल पहले इस पहली रचना पर मिले पारिश्रमिक ने जैसे मेरे भीतर लिखने की इस क्रिया को लेकर एक बदलाव ला दिया। बाकी क्षणिकाएं भी छपीं। फिर पढने लिखने बहसने का लंबा दौर चला तो चीजें बदलती गयीं। आज लेखन की दुनिया में वे तीनों कहीं नहीं हैं। जबकि मेरे एमए करने के समय राजेश अखबारों में रपटें लिखता था उसके पिता भी प्रोफेसर के अलावे अखबार के संवाददाता भी थे। शैली ने ब्राहमण होकर एक राजपूत राजस्‍थानी लडकी से शादी की। फिर कोई एनजीओ आदि ज्‍वायन किया। पत्रकारिता भी की। लखनउ में मकान बना वहीं बस गया। अच्‍युता को मैट्रिक में वजीफा मिला था पर कविता ने उसे बरबाद कर दिया ऐसा कहा जा सकता है।

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

21वीं सदी की मिनी और काबुलीवाला

एक थी मिनी एक था काबुलीवाला
अरे, वो टैगोर की मिनी नहीं यह इक्‍कीसवीं सदी के एक पगले अफसानानिगार की मिनी थी। वह अफसानानिगार यूं ही कहानियों के प्‍लाट की खोज में भटकता फिरता था इधर उधर तो एक सुबह टकरा गया था उससे। अपनी रौ में वह चला जा रहा था यूं ही कि अचानक किसी ने उसकी राह रोक ली थी, जब उसने देखा तो एक नाजनीन आंखें तरेर रही थी। वह हकबकाया सा कुछ क‍हता कि नाजनीन ने पूछा - कि जनाब आप यह दिन में तारे गिनते कहां जा रहे हैं।
कहां ... माने ... हकबकाया सा अफसानानिगार ने पूछा - मैं तो खोज में जा रहा हूं , कहानी के प्‍लाट की।
हा हा हा ... नजनीन ने टहोका मारा - कहानी तो यह रही आपके सामने, अब प्‍लाट आप बना लीजिए ...।
अब जाकर अफसानानिगार ने उसकी आंखों में झांका तो सरल हास्‍य की एक लौ छू गयी उसे और वह मुस्‍करा उठा।
मेरा नाम है मिनी, मेरी उम्र है पचास साल पास ही मेरा घर है वहीं अपनी बहन के साथ रहती हूं। चलिए अपना घर दिखा दूं।
इस पर अफसानानिगार मुस्‍कराया - अरे आप तो बीस-बाइस की लग रही हैं और यह मिनी , यह तो बच्‍चों का नाम हुआ।
इस पर गोल-गोल आंखें घुमाते हुए मिनी ने बताया कि चूंकि मेरा दिमाग पचास के व्‍यक्ति सा है इसलिए मैं पचास की हुयी और मेरा मन अभी भी बच्‍चों की मफिक सरल और चंचल है सो मैं अभी भी मिनी हूं।
यूं मेरा नाम रोज है , रोज रोज वाला भी और रोज वाला भी।
मतलब मेरा मूड रोज रोज बदलता है और मेरी आंखों में लाल गुलाब से लाल डोरे हमेशा तने रहते हैं इसलिए मैं रोज हुयी , हुयी कि नहीं।
और आप कौन हैं जनाब बताएंगे...।
मैं ... सोच में पड गया अफसानानिगार।
मैं ...मैं मैं क्‍या लगा रखा है ... क्‍या किसी लडकी से बात नहीं की है आज तक ऐसे हकला क्‍यों रहे हैं ...।
... मैं हूं कुमार।
अरे आपकी उम्र तो पैंतीस से उपर लग रही है, आप कुमार क्‍यों कर हैं अब तक।
हां, मैं पैंतीस का हूं पर मेरी आवारगी ने कभी मुझे कुमारावस्‍था से उपर का होने नहीं दिया।
तो मिस्‍टर आवारा, क्‍यों ना आप अपना नाम रख लें काबुलीवाला
काबुलीवाला ... हैरत में पड सवाल सा किया कुमार ने।
हां काबुलीवाला ... क्‍यों इस नाम में बुरा क्‍या है।
...अरे यह तो बूढों सा नाम हुआ
...तो क्‍या हुआ.. मिनी ने टहोका मारा - अगर बीस साल की मैं मिनी हो सकती हूं तो पैंतीस के आप काबुलीवाला क्‍यों नहीं हो सकते। प्‍लीज बन जाइए ना काबुलीवाला, तब मैं आपको कहानी के प्‍लाट दूंगी नये नये।
आंखें फाडते कुमार ने हां में सिर हिलाया तो लपक कर मिनी ने उसे गले लगा लिया, कि आज से आप हुए मिनी के काबुलीवाले।
मेरे लिए रोज आपको मेवे लाने होगे, झोले में भर भर कर। समझे ना।
कुमार की हैरत से आखें फटी जा रही थी, उसने बहुत कहानियां पढी थीं पर ऐसी आदमकद और दिलेर लडकियां हो सकती हैं दुनिया में उसे पता नहीं था। वह यह सोच ही रहा था कि मिनी ने पूछा - रोज लाएंगे ना मेवे।
कुमार चिंता में पड गया।
तब मिनी चीखी - अरे, मेवे मतलब किताबें। मुझे पढने का बहुत शौक है। और आप हैं अफसानानिगार कुमार तो आप झोले में भर भर कर लाएंगे किताबें मिनी के लिए हर बार।
हां...आं आं आं ... ठीक है, ठीक है।

डेली न्‍यूज, जयपुर, 2019

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